मंगलवार, 24 मार्च 2015

चन्दरु की दुनिया - तीसरी किश्त

गतांक से आगे

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सांवली पारो को उसे परेशान करने में बड़ा मजा आता था। कानों में चांदी  के बाले झुलाती , पाँव में छोटी सी पाजेब खनकाती , वो अपनी सहेलियों के साथ उसके ठेले के गिर्द हो जाती तो चन्दरु समझ जाता कि अब उसकी शामत आई है। दही बड़े की पत्तल तकरीबन चाट कर वो ज़रा सा दही बड़ा उस पर लगा रहने देती और फिर उसे दिखा कर कहती - अबे गूंगे , तू बहरा भी है क्या ? मैंने दही बड़े नहीं मांगे थे , दही पटाकरी मांगी थी। अब उसके पैसे कौन देगा ? तेरा बाप ? वो उस बड़े की पत्तल उसे दिखा कर बड़ी हिकारत से जमीन पर फैंक देती।

वो जल्दी जल्दी उसके लिए दही पटाकरी बनाने लगता। पारो उस पटाकरी की पत्तल साफ़ करके उसमें आधी पटाकरी छोड़ देती और गुस्से से कहती - इतनी मिर्च डाल  दी ! इतनी मिर्ची ? चाट बनाना नहीं आता तो ठेला लेकर इधर क्यों आता है ? ले अपनी पटाकरी वापस ले ले ! इतना कहकर वो दही और चटनी की पटाकरी अपने नाखून की नोंक में फँसा कर उसके ठेले पर घुमाती। कभी उसे झूठी पटाकरियों के थाल में वापस डाल देने की धमकी देती। उसकी सहेलियां हँसती , तालियां बजाती। चन्दरु दोनों हाथों से नायं नायं के इशारे करता हुआ पारो से अपनी झूठी पटाकरी जमीन पर फैंक देने का इशारा करता। अच्छा समझ गयी ! तेरे चने के थाल में डाल दूँ ? वो जान बूझकर उसका इशारा गलत समझती। जल्दी जल्दी घबराये हुए अंदाज़ में चन्दरु जोर जोर से सिर हिलाता फिर जमीन की तरफ इशारा करता। पारो खिलखिलाकर कहती : अच्छा जमीन से मिटटी उठाकर तेरे दही के बर्तन में डाल दूँ ? पारो नीचे जमीन से थोड़ी सी मिटटी उठा लेती। इस पर चन्दरु और भी घबरा जाता। दोनों हाथ जोर से हिलाकर मना करता। बलआखिर पारो उसे धमकाती। तो चल जल्दी से आलू की टिकियां तल दे। और खूब गरम गरम मसाले वाले चने देना और अदरक भी। नहीं तो ये पटाकरी अभी जायेगी तेरे काले गुलाब जामुन के बर्तन में ....…… . चन्दरु खुश होकर पूरी बत्तीसी निकाल देता। माथे पर आई हुई एक घुंघराली लट पीछे को हटा के तौलिये से हाथ पौंछ के पारो और उसकी सहेलियों के लिए आलू की टिकिया तलने में मसरूफ हो जाता।

फिर कभी कभी पारो भी हिसाब में भी घपला किया करती। साठ पैसे की टिकिया , तीस पैसे की पटाकरी , दही बड़े तो मैंने मांगे ही नही थे इसलिए पैसे क्यों मिलेंगे तुझे ....... ? हो गए नब्बे पैसे , दस पैसे कल के बाकी हैं तेरे ...………। ले एक रुपया ! गूँगा चन्दरु पैसे लेने से इंकार करता। वो कभी पारो की शोख चमकती हुई आँखों को देखता , कभी उसकी लम्बी लम्बी उँगलियों में  कंपकपाते एक रुपये के नोट को देखता और सिर हिलाकर इंकार कर देता और फिर हिसाब समझाने बैठता। वो वक्त क़यामत का होता था जब वो पारो को हिसाब समझाता था। दही बड़े के थाल की तरफ इशारा करके अपनी ऊँगली को मुंह पर रख कर चप चप की आवाज़ पैदा करते हुए गोया उससे कहता - दही बड़े खा तो गयी हो , उसके पैसे क्यों नहीं दोगी ? " तीस पैसे दही बड़े के भी लाओ " वो अपने गल्ले में से तीस पैसे निकाल के पारो को दिखाता। इस पर पारो फ़ौरन चमक कर कहती " अच्छा तीस पैसे मुझे वापस दे रहे हो "? लाओ ………………… . ! इस पर चन्दरु फ़ौरन अपना हाथ वापस खींच लेता 'नहीं ' ! इनकार में वो सिर हिलाकर पारो को समझाता। मुझे नहीं तुम्हें देने होंगे ये तीस पैसे। वो अपनी ऊँगली पारो की तरफ बढ़ाकर इशारा करके कहता। इस पर पारो फ़ौरन उसे धमकाती : " अबे अपना हाथ पीछे रख। ………… नही तो मारूंगी चप्पल।"  इस पर चन्दरू घबरा जाता। पारो की डांट से लाजवाब होकर बिलकुल बेबस होकर मजबूर और खामोश  निगाहों से पारो की तरफ देखने लगता कि उस पर पारो को रहम आ जाता और पारो जेब से पूरे पैसे निकालकर उसे दे देती। तू बहुत घपला करता है हिसाब में , कल से तेरे ठेले पर नही आउंगी। मगर दूसरे दिन फिर आ जाती जाती। उसे चन्दरु को छेड़ने में मजा आता था। और अब चन्दरु को भी मजा आने लगा था। जिस दिन पारो नही आती थी , हालाँकि उस दिन भी चन्दरु की गाहकी में कोई फर्क  पड़ता था मगर जाने क्या बात थी चन्दरु को वो दिन सूना सूना लगता था। 
जहां पर उसका ठेला रखा था , वो उसके सामने एक गली से आती थी।  पहले पहल चन्दरु का ठेला बिल्कुल  यूनियन बैंक के सामने नाके पर था। हौले हौले चन्दरु अपने ठेले को खिसकाते खिसकाते पारो की गली के बिलकुल सामने ले आया।  अब वो दूर से पारो को अपने घर से निकलते देख सकता था।  पहले दिन जब उसने ठेला यहां लगाया था तो पारो ठेले की बदली हुई जगह देखकर कुछ चौंकी थी।  कुछ गुस्से से भड़क गयी थी।   अरे तू नाके से इधर क्यों आ गया गूंगे ? गूंगे चन्दरु ने टेलीफोन एक्सचेंज की ईमारत की तरफ इशारा किया।  जहां वो अब तक ठेला लगाता आ रहा था।  उधर केबल बिछाने के लिए जमीन खोदी जा रही थी और बहुत से काले काले पाइप रखे हुए थे।  वज़ह माकूल थी , पारो लाजवाब हो गयी।  फिर कुछ नही बोली।   लेकिन जब केबल बिछ गयी और जमीन की मिटटी समतल कर दी गयी तो  भी चन्दरु ने अपना ठेला नहीं हटाया।  तो भी वो कुछ नही बोली।  हाँ , उसके चंचल स्वभाव में एक अजीब सी तेज़ी आ गयी।  वो उसे पहले से ज्यादा सताने लगी !


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                                                                                                 कहानी आगे ज़ारी रहेगी :

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