गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

Rai Pithora Fort :Delhi

किला राय पिथोरा ( लाल कोट ) : दिल्ली

दिल्ली ने जितने ज़ख़्म अपने सीने पर खाये हैं और जितनी ज्यादा बार लूटी गयी है उतना शायद इतिहास में किसी और शहर के साथ न हुआ होगा ! जो आया इसे रौंदता चला गया और ये और इसके बाशिंदे गाजर मूली की तरह कटते गए , बिखरते गए ! रोई तो जरूर होगी दिल्ली , लेकिन किसी ने उसका रुदन शायद सुना ही नहीं होगा , सुना होता तो कोई तो आता इसके आंसू पोंछने ! इसी लुटी -पिटी दिल्ली के आंसुओं की कहानी कहते खँडहर आज भी जिन्दा हैं दिल्ली में , जो रोते तो नहीं लेकिन अपनी मनोदशा को व्यक्त करने के लिए उदासी लपेटे रहते हैं ! उन्हीं खंडहरों में से एक है दिल्ली का लालकोट , जिसे अब आप किला राय पिथोरा कहते हैं ! 





दिल्ली मेट्रो के येल्लो लाइन पर स्थित साकेत के मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलते ही किला राय पिथोरा का साइन बोर्ड लगा है ! मतलब आपको पैदल बिलकुल भी नहीं चलना !

किला राय पिथोरा को चौहान वंश के प्रतापी राजा पृथ्वीराज चौहान ​ने 12 वीं शताब्दी में बनवाया था , पृथ्वीराज चौहान ने तब दिल्ली को तोमर शासकों से कब्जाया था ! असल में ये पृथ्वी राज चौहान के राय पिथोरा नाम देने से पहले भी एक किला था जिसे लाल कोट कहा जाता था , लाल कोट का निर्माण तोमर शासक अनंग पाल ( प्रथम ) ने 8 वीं शताब्दी में कराया था ! यही वो जगह रही जहाँ से तोमर , चौहान और गुलाम वंश के शासकों ने अपनी राजसत्ता को चलाया ! और आप जो देखने जा रहे हैं , ये किला सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि इसके अवशेष साउथ दिल्ली के साकेत से लेकर महरौली , क़ुतुब कॉम्प्लेक्स , किशनगढ़ और वसंत कुञ्ज तक फैले पड़े हैं ! आज इसका एक हिस्सा देख लेते हैं ! एक साथ सारा देखोगे तो अपच हो जायेगी !!

इतिहास पर नजर मारें तो 1160 ईस्वी में चौहान राजाओं ने तोमर राजाओं से दिल्ली को जीत लिया था और जीतने के बाद पहले से व्यवस्थित रूप में बने लाल कोट किले को और वृहद रूप में विस्तार दिया ! यहां ये बात ध्यान देने की है कि उस वक्त तक पृथ्वीराज चौहान ने अपनी राजधानी अजमेर में ही रहने दी थी ! तोमर राजा अनंग पाल ने इसे सिर्फ अपने किले के रूप में बनवाया था जबकि पृथ्वीराज चौहान ने इस लगभग साढ़े छह किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस किले को परकोटा बनवाकर एक शहर में तब्दील कर दिया था ! लेकिन दुर्भाग्यवश चौहान राजाओं को भी इसे छोड़ना पड़ा ! पृथ्वीराज चौहान ने हालाँकि 1191  में मुहम्मद गौरी को युद्ध में हरा दिया था लेकिन इसके एक साल बाद 1192 में इस वीर प्रतापी चौहान राजा को कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा और ये किला भी छोड़ देना पड़ा ! ऐसा माना जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने भी इस किले में कोई ज्यादा बदलाव नहीं करवाया था !!

अच्छा हाँ , एक बात और बताना भूल गया ! इसके करीब एक डेढ़  किलोमीटर ​आगे गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसेस भी है जिसे सईद उल अजैब भी कहते हैं ! तो मौका मिले तो दोनों जगह एक ही बार में पूरी कर आना !!




बस पत्थर एक मोटी सी दीवार ही नजर आती है















यही लाल कोट का परकोटा है

इस पत्थर की दीवार के उस तरफ जंगल ही जंगल है








अवसर मिलते ही अगली सीरीज प्रस्तुत करी जायेगी !!

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