सोमवार, 16 जनवरी 2017

Mehrauli Archaeological Park : Balban's Ruins

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राजों की बावली और सामने वाले कब्रिस्तान की दुर्गन्ध सूंघने के बाद आगे महरौली अर्किलिजीओकल पार्क की तरफ कदम बढ़ा दिए , जंगल में से होकर रास्ता बना है ! आगे पीछे दो दो चार लड़के लड़कियों का ग्रुप चल रहा था और मैं अकेला ! इतिहास के टूटे फूटे पन्नों में इन नौजवानों की रूचि को चलते चलते ही तौल रहा था ! इन्हें सच में इतिहास में रूचि है ? या अवसर , एक मौके की तलाश कर रहे हैं ये लोग , अपनी भावनाओं को खुलकर बह जाने देने के लिए ! खैर , जो भी है !

अच्छा बनाया हुआ और अच्छी तरह मैंटेन किया हुआ है पार्क को ! बहुत सारे लोग मिल जाएंगे घूमते घामते , कुछ मॉडलिंग के शौक़ीन लोग भी बड़े बड़े कैमरों के सामने अपनी हर अदा से दूसरों की आँखों की चमक बढ़ा देते हैं ! आगे शुरुआत होती है एक गहरे कुँए से , जो शायद जहांगीर का कुआँ कहा जाता है ! इसके बाद मेटकॉफ का प्रयोग है जिसके निशान अभी बाकी हैं और लगभग हर जाने वाला उसके साथ खड़े होकर एक फोटो खिंचवाता ही है ! मेटकॉफ के विषय में और ज्यादा जानकारी अगली पोस्ट में आएगी ! यहां से निकलते हैं और अब सीधे बलबन के मक़बरों के खंडहरों की तरफ बढ़ते हैं ! बलबन मतलब गयासुद्दीन बलबन , 1266 ईसवी से 1287 ईसवी तक गुलाम वंश का दिल्ली का शासक रहा ! बलबन , गुलाम वंश का एक प्रितिष्ठित सुलतान रहा है ! और इसी प्रतिष्ठित शासक के ये जो खँडहर हैं ये 19 वीं शताब्दी के मध्य में ढूंढें गए जो आज हमारे लिए देखने लायक जगह हो चुकी हैं !


इन खंडहरों में आपको बलबन का मक़बरा , उसके पुत्र खान शहीद ( जिसका वास्तविक नाम मुहम्मद था ) का मकबरा और उस समय के घरों के कुछ खँडहर देखने को मिलते हैं ! खान शहीद 1285 ईसवी में मंगोलों के साथ युद्ध करते हुए मुल्तान में शहीद हो गया था जिसका मकबरा यहां बनवाया गया ! वैसे बलबन का इतिहास पढ़ें तो आप इसे बहुत रुचिकर समझेंगे , कैसे इसी बलबन को मंगोलों ने बंदी बना लिया था और इसे गज़नी ले जाकर बसरा के ख्वाज़ा जमालुद्दीन के हाथों बेच दिया था ! ख्वाज़ा जमालुद्दीन उसे लेकर दिल्ली आ गए और फिर इल्तुतमिश ने उसे ग्वालियर की विजय के बाद खरीद लिया ! और उसकी योग्यताओं से खुश होकर उसे "खासदार " बना दिया ! स्वामिभक्ति और सेवाभाव के फलस्वरूप वह निरंतर उन्नति करता गया, यहाँ तक कि सुलतान ने उसे चेहलगन के दल में सम्मिलित कर लिया। रज़िया के राज्यकाल में उसकी नियुक्ति अमीरे शिकार के पद पर हुई। बहराम ने उसको रेवाड़ी तथा हांसी के क्षेत्र प्रदान किए।

सन 1245 ईसवी में मंगोलों से लोहा लेकर अपने सामरिक गुण का प्रमाण दिया। आगामी वर्ष जब नासिरुद्दीन महमूद सिंहासनारूढ़ हुआ तो उसने बलबन को मुख्य मंत्री के पद पर आसीन किया। 20 वर्ष तक उसने इस उत्तरदायित्व को बेहतरीन तरीके से निबाहा । इस अवधि में उसके समक्ष जटिल समस्याएँ प्रस्तुत हुईं तथा एक अवसर पर उसे अपमानित भी होना पड़ा, परंतु उसने न तो साहस ही छोड़ा और न दृढ़ संकल्प। वह निरंतर उन्नति की दिशा में ही अग्रसर रहा । सन 1246 ईसवी में दुआबे के हिंदू जमींदारों की उद्दंडता का दमन किया। तत्पश्चात् कालिंजर व कड़ा के प्रदेशों पर अधिकार जमाया। प्रसन्न होकर सन 1249 ईसवी में सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया और उसको नायब सुल्तान की उपाधि प्रदान की। सन 1252 ई. में उसने ग्वालियर, चंदेरी और मालवा पर अभियान किए। प्रतिद्वंद्वियों की ईर्ष्या और द्वेष के कारण एक वर्ष तक वह पदच्युत रहा परंतु शासन व्यवस्था को बिगड़ती देखकर सुल्तान ने विवश होकर उसे बहाल कर दिया। दुबारा कार्यभार सँभालने के पश्चात् उसने उद्दंड अमीरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। सन 1255 ईसवी में सुल्तान के सौतेले पिता कत्लुग खाँ के विद्रोह को दबाया।  सन 1257 ईसवी में मंगोलों के आक्रमण को रोका।  सन 1259 ईसवी में क्षेत्र के बागियों का नाश किया।

नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात् बिना किसी विरोध के बलबन ने मुकुट धारण कर लिया। उसने 20 वर्ष तक राज्य किया। सुल्तान के रूप में उसने जिस बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता तथा नैतिकता का परिचय दिया, इतिहासकारों ने उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। शासनपद्धति को उसने नवीन साँचे में ढाला और उसको मूलत: लौकिक बनाने का प्रयास किया। वह मुसलमान विद्वानों का आदर तो करता था लेकिन राजकीय कार्यों में उनको हस्तक्षेप नहीं करने देता था। उसका न्याय पक्षपात रहित और उसका दंड अत्यंत कठोर था, इसी कारण उसकी शासन व्यवस्था को लोह रक्त की व्यवस्था कहकर संबोधित किया जाता है। वास्तव में इस समय ऐसी ही व्यवस्था की आवश्यकता थी।

बलबन ने मंगोलों के आक्रमणों की रोकथाम करने के उद्देश्य से सीमांत क्षेत्र में सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया और इन दुर्गों में साहसी योद्धाओं को नियुक्त किया। उसने मेवात, दोआब और कटेहर के विद्रोहियों को आतंकित किया। जब तुगरिल ने बंगाल में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी तब सुल्तान ने स्वय वहाँ पहुँचकर निर्दयता से इस विद्रोह का दमन किया। साम्राज्य विस्तार करने की उसकी नीति न थी, इसके विपरीत उसका अडिग विश्वास साम्राज्य के संगठन में था। इस उद्देश्य की पूर्ति के हेतु के उसने उमराव वर्ग को अपने नियंत्रण में रखा एवं सुलतान के पद और प्रतिष्ठा को बनाया। उसका कहना था कि "सुल्तान का हृदय दैवी अनुकंपा की एक विशेष निधि है, इस कारण उसका अस्तित्व अद्वितीय है।" उसने सिजदा एवं पायबोस की पद्धति को चलाया। उसका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उसको देखते ही लाग संज्ञाहीन हो जाते थे। उसका भय व्यापक था। उसने सेना का भी सुधार किया, दुर्बल और वृद्ध सेनानायकों को हटाकर उनकी जगह वीर एवं साहसी जवानों को नियुक्त किया। वह तुर्क जाति के एकाधिकार का प्रतिपालक था, अत: उच्च पदों से अतुर्क लोगों को उसने हटा दिया। कीर्ति और यश प्राप्त कर वह सन 1287 ई. के मध्य परलोक सिधारा। बलबन के दरबारी फ़ारसी कवि आमिर खुसरो और आमिर हसन थे ! नाशिरुद्दीन महमूद ने बलबन को उलुग खान की उपाधि दी ! बलबन ने फ़ारसी त्यौहार नवरोज प्रारम्भ करबाया ! सिजदा और पेबोस एक प्रकार की सम्मान करने की पद्धति थी जिसमें सुल्तान को लेट कर सम्मान देते थे और सुल्तान का ताज और पैर पर चुमते थे ! बलबन ,दिल्ली को मंगोलों के आक्रमण से रक्षा करने में सफल रहा और अंत में तुरकन ए चहल्गामी का नाश किया जिसे इल्तुत्मिस ने बनाया था ! 
इतिहास में जिसकी रूचि नहीं होती उसके लिए ऐसी पोस्ट झेलना मुश्किल हो जाता है , मैं जानता हूँ ! लेकिन देखते हैं ? कितने लोग हिम्मत दिखाते हैं : 

मेटकॉफ का प्रयोग  (Metcalfe Foli )
मेटकॉफ का प्रयोग स्थल से दिखाई देता कुतुबमीनार( Qutub Minar seen from Metcalfe Folly )


बलबन के ज़माने के घरों के अवशेष( Ruins of Houses of Balban's era)

बलबन की कब्र ( Grave of Balban)


Balban's Tomb
Balban's Tomb
Some more Ruins of Houses
Some more Ruins of Houses

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